दुनिया की सबसे बड़ी फ़िल्म इंडस्ट्री व सपनों की नगरी मुंबई, जहाँ हर वर्ष लाखों लोग अपना भविष्य सँवारने व सपने पूरे करने के लिये क़दम रखते हैं। चमक दमक से भरपूर इस फ़िल्मी दुनिया में नाम, शोहरत व पैसा उन्हें बरबस ही आकर्षित करता है। मुम्बई फ़िल्म इंडस्ट्री देखने में जितनी शान्त, सरल व ख़ुशियों से भरी नज़र आती है, दरअसल अन्दर से उतनी ही खोखली व मतलबी लोगों से भरी हुई है।अगर कुछ एक फ़िल्मकारों को छोड़ दिया जाए तो अधिकांश फ़िल्मकार दोहरा मापदण्ड अपना कर अपना उल्लू सीधा कर रहे हैं और दूसरों को बर्बाद करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ रहे हैं।दुख की बात यह है की वर्षों से जमे प्रतिष्ठित व नामी गिरामी प्रोडक्शन हाउस ही इनकी अगुवाई कर रहे हैं।सुशान्त सिंह राजपूत की असमय मृत्यु ने फ़िल्म इण्डस्ट्री के गड़े मुर्दे उखाड़ दिए हैं और आपस में आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है।

भाई-भतीजावाद के सहारे फ़िल्म इंडस्ट्री
फ़िल्मी दुनिया में बिना गॉडफ़ादर के अपनी मेहनत से मुक़ाम हासिल करना लोहे के चने चबाना जैसा है।हज़ारों प्रतिभाशाली कलाकारों की भीड़ में एक आध चेहरा ही सफल होकर अपने सपने पूरे कर सकता है।टैलंटेड लोग जहाँ फ़िल्मों में छोटे मोटे रोल पाने के लिए संघर्ष करते हैं वहीं सगे सम्बन्धी, जान पहचान व पैसे वालों के बच्चों को पूरा फ़ेवर किया जाता है और उन्हें मुख्य भूमिका के लिये चुन लिया जाता है।इस नेपोटिज़्म की आँधी ने हज़ारों प्रतिभाशाली कलाकारों को हवा में उड़ा दिया है और जिनके पैर कभी दोबारा ज़मीन पर नहीं टिक पायें हैं। सपनों की इस बेरहम नगरी में हर आदमी दूसरे का हक़ मार कर आगे बढ़ना चाहता है।ऐसे प्रतिभावान कलाकारों का हौसला बड़े प्रोडक्शन हाउस तोड़ डालते हैं और इन्हें बीच मझदार में छोड़ देते हैं। जहाँ कुछ कलाकार ज़िंदगी में अपने मुक़ाम को हासिल करने के लिये सालों साल संघर्ष करते हैं और सफलता पाते हैं वहीं कुछ स्ट्रगलर बनकर सारी उम्र रोज़ी रोटी के लिये लड़ते रहते हैं।

प्रतिभाशाली कलाकारों से असुरक्षित महसूस होना —
बड़े फ़िल्म स्टार इन छोटे प्रतिभाशाली कलाकारों के जानदार अभिनय से ख़ुद को असुरक्षित महसूस करते हैं।उन्हें डर लगा रहता है की उनके दमदार अभिनय के आगे उनका स्टारडम न फीका पड़ जाये, इसलिए वह अपने साथ हमेशा कम प्रतिभाशाली व जी हजूरी करने वाले कलाकारों को ही मौक़ा देते हैं और इसमें प्रोडक्शन हाउस उनका खुल कर साथ देते हैं।इन बड़े फ़िल्म स्टार के मुँह लगे कुछ पत्रकार व फ़िल्मी चैनल नवोदित कलाकारों की फ़िल्मों को औसत बताकर उन्हें फ़्लॉप घोषित करने में जी जान लगा देते हैं। इतना ही नहीं, ये प्रॉडक्शन हाउस विभिन्न कम्पनियों के साथ मिलकर अवार्ड शो आयोजित करते हैं जिसमें बड़े फ़िल्म स्टार एक दूसरे को सहारा देते हैं और पहले से फ़िक्स बेस्ट अभिनेता, अभिनेत्री व प्रोडक्शन के तमाम पुरस्कार लेकर चलते बनते हैं और दर्शकों की आँखो में धूल झोंकने के साथ साथ इन प्रतिभाशाली कलाकारों का हक़ भी मारते हैं।पिछले कई वर्षों से ऐसी अनेक घटनाओं का ख़ुलासा कई फ़िल्म अभिनेताओं ने किया है।

बॉलीवुड की साख ख़तरे में —
समय समय पर नेपोटिज़्म का मुद्दा बॉलीवुड व प्रोडक्शन हाउस की नींद हराम करता आया है जिसके लिये वह ख़ुद जिम्मेवार है।अगर वक़्त रहते कुछ क़दम उठाए होते तो इतनी विकट परिस्थिति का सामना नहीं पड़ता और दुनिया की नज़रों में अपनी साख को बचाए रखा जा सकता था।आख़िर में दो शब्द फ़िल्म अभिनेत्री कंगना रनोत की बहादुरी के लिये बनते हैं, जिसने न केवल अपने बल पर फ़िल्म इंडस्ट्री में मुक़ाम पाया बल्कि इन इन बड़े प्रोडक्शन हाउस की करतूतों को सबके सामने उजागर किया है, एक छोटे शहर की लड़की इसके लिये बधाई की पात्र है। धन्यवाद व जय हिन्द
बेहद जरुरी लेख।
sach hai.
I liked this!
Thank you sir
We should find out some solutions to eradicate this unhealthy feeling from film world, as most of young generation live in this fantasy. They don’t face reality
Hope to have golden Era Of cinema again in our lives. 😊😎